आखिरकार क्या होती है किन्नर और क्यों नाम लेने से हिचकते हैं लोग ?

क्या होती है किन्नर
कहने को तो हम 21वीं शताब्दी में रहते हैं लेकिन क्या हम बदलते हुए सताब्दी के साथ अपने अधिकार क्षेत्रों में कोई बदलाव देखते हैं। क्या समाज के हर तबके को उनके जरुरत के हिसाब से उनका अधिकार आज भी मिल पाता है। साल बदलते हैं दशक बदलते हैं, सदियाँ बदल जाती हैं, कई पुस्ते बनते हैं और कई बिगड़ते हैं, लेकिन कुछ चीजें अनुवांशिकता की तरह समाज में एक पुस्त से दूसरे पुस्त तक बढ़ती चली जाती हैं, और यही सोंच समय के साथ मनुष्य की मानसिक धारणा भी बन जाती है। ऐसी ही कुछ शापित धारणाएँ हमारे समाज के आस्तित्व को खोखला कर रही हैं और विकास की गति को बाधित करती हैं। ऐसी मानसिकता के बारे में अगर आप सोंचेंगे तो पहला शब्द जो आपकी सोंचने के दायरे में खड़ा होकर दुहाई दे रहा होगा वह होगा ”समानता ” समानता न सिर्फ शिक्षा के लिए, समानता न सिर्फ अधिकारों में बल्कि समानता समाज का एक अभ्भिन अंग बनने की, समानता समाज में अपनी पहचान पाने की, समानता लिंग के आधार पर भेदभाव का शिकार न होने की।
समानता की बात करें तो हमारे समाज में एक नहीं सैकड़ों मुद्दे मिल जायेंगे हमें बात करने के लिए, लेकिन एक ऐसा मुद्दा जिसके बारे में जल्दी कोई बात नहीं करना चाहता जिसके बारे में लोग जानकारी नहीं रखते, जिसके बारे में लोग सोंचते हैं की यह तो कोई विषय ही नहीं है ये तो कोई समस्या ही नहीं है। और यह विषय है लिंग की समानता (gender equality ) का, अरे नहीं-नहीं अब आप सोंच रहें होंगे की मैं फिर से फेमिनिज्म का झंडा उठा कर महिलाओं के अधिकार की लड़ाई के बने हुए चक्रब्यूह में कूद पड़ी हूँ, तो आप गलत सोंच रहें हैं मैं लड़की होने पर समाज में समानता की बात नहीं कर रही
किन्नर की पहचान क्या

मैं समाज के उस तबके की बात कर रही हूँ जिसे हम न तो पुरूष वर्ग का मानते हैं न ही स्त्री वर्ग का। सामान्यतः समाज में ऐसे तबके को ”किन्नर ” के नाम से बुलाया जाता है। इतना ही नहीं बल्कि समाज में ऐसे लोगों को एक विकार समझने वालों की भी कमी नहीं हैं। आज के समय में जहाँ हम काफी इंटेलेक्चुअल होने का दिखावा करते हैं वहीं जब वास्तविक समस्या का सामना करना पड़ता है तब हम जैसे इंटेलेक्चुअल लोग धीरे से मुश्किल के समय में जरुरतमंदो का सहारा बनने के बदले उनसे कट कर निकल जाते हैं। जानते हैं ऐसा क्यों ? क्योंकि हम खुद ही भगवान की बनाई रचना का आंकलन करने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं की कुछ भी सही या गलत नहीं होता बल्कि सभी चीजों का सभी प्राणियों का अपना एक वजूद होता है। हमारे समाज का एक ऐसा ही अंग है किन्नर समाज जिसे लाख कोशिशों के बावजूद भी हम इन्हें अपने समाज का हिस्सा नहीं बना पाए हैं।
तो मैंने सोंचा की चलो क्यों न आज मुझे पढ़ने वालों को मैं समाज के उस खूबसूरत तबके की वास्तविकता का आईना दिखाऊं, उनकी शारीरिक बनावट ही नहीं बल्कि उनकी समस्याएं भी दिखाऊ, उनकी आवाजें सुन कर हसने वालों को उनके छुपे हुए आंसू दिखाऊ, जो आपकी अवहेलना का पात्र बन कर भी मुस्कुराते हुए हर पल जहर समान अपने अपमान का घूंट पी जाते हैं। तो चलो आज फिर किसी का दर्द पढ़ते हैं, किसी का दर्द बांटते हैं।
किन्नर कह कर ठहाके लगा तो देते हैं हम
गली से गुजरे जब काफ़िरा उनका नजरे चुरा तो लेते हैं हम
समानता क्या सिर्फ मर्दों और औरतों में ही जरुरी हैं, क्या मानवता समानता की हक़दार नहीं है ? न स्त्री होने का गर्व है न मर्द होने अधिकार है उनके पास फिर भी जब भी वे किसी रास्ते से गुजरते हुए अपने ग़मों को किसी पर हावी न होने देकर अपनी चहलकदमी से लोगों के मुस्कान छोड़ जाते हैं वे, फिर चाहे हमारी वह मुस्कान व्यंगात्मक ही क्यों न होती है। अपना आस्तित्व खो कर अपनी पहचान के बिना अपने वजूद का समाज में हर पल मजाक बनते देखना और फिर भी होंठों पर पान की लालिमा भरे हुए मुस्कान की रस में अपनी तालियों को डुबों कर सब कुछ हँसते हँसते सह लेना भी एक कला होती हैं। जब कभी गली से हम इन्हें गुजरते देखते हैं तो अपने अपने दरवाजे बंद कर लेते हैं, वो सम्मान जो एक इंसां का हक़ है वो हक़ भी हम इन्हें नहीं दे पाते। सरकारें आती है चली जाती हैं, कानून बनते हैं है और संविधान के पन्नों में ही सिमट कर रह जाते हैं। संविधान के किताबों में तो हम बहुत ही शोर मचती हैं की समान सम्मान है पर कहाँ है वह सम्मान असल जिंदगी में, कहाँ है वह सम्मान जब उन्हें जरुरत है उसकी ? किताबों के पन्नो में सिमट कर रह जाने वाले बदलाव नहीं बल्कि समाज में परिवर्तन वाला कानून चाहिए , कानून ऐसा जो उस हिजड़े समाज को हिम्मत दे की वे अपने हक़ की लड़ाई हक़ से लड़ सकें, किसी अवहेलना अपमान का पात्र बनने की घुटन और शर्मिंदगी उन्हें उनके अधिकारों से बंचित न कर सके। और यह बदलाव केवल किसी संविधान या नियम-कानूनों से नहीं बल्कि मानवता के मूल मंत्र से ही जागृत होने वाली भावनाओं से आ सकता है। हम एक कदम आगे बढ़ें ताकि समाज का हर तबका तरक्की करें तभी शायद देश पूर्णतः विकसित श्रेणी में शामिल हो पायेगा।
बुरा लगता है जब मैं इन किन्नरों को लोगों से पैसे मांगते देखती हूँ और लोग उन्हें बड़े ही घिनौने लहजे में उनका अपमान कर जाते हैं। कभी किसी ने पैसे दिए या कभी किसी ने बेइज्जत कर के छोड़ दिया। कुछ लोग तो मैं ऐसे भी सुने हैं जो ये कहते हैं की अरे तुम लोग कमाते किसके लिए हो ? तो मैंने आज यह ब्लॉग ख़ास तौर पर ऐसे लोगों के इन्हीं सवालों के जवाब में लिखा है……क्योंकि हमने कभी उनके बारे में जानने की कोशिश ही नहीं की इसलिए हमने जाना ही नहीं की उनका भी एक परिवार होता है या फिर यूँ कहें की हम तो केवल अपने परिवार के लिए कमाते हैं पर वे तो अपने पुरे समाज के लिए कमाते हैं।
किन्नर का राज क्या है
आप अपने खूनके रिश्ते निभाते हैं पर वे उनके साथ रिश्ते निभाते हैं जिनको दुनिया ने छोड़ दिया है, वे खुद के साथ रिश्ता निभाते हैं जो हम नहीं कर पाते हैं। हम तो एक वक़्त के बाद अपने परिवार से भी दुरी बना लेते हैं पर वे अपने पुरे समाज को जोड़ कर रखते हैं। इतना ही नहीं इन हम तो इतने मतलबी जमाने में रहते हैं जहाँ अगर ये किन्नर स्टेशन पर पैसे मांगते दिख जाये तो नजरें चुरा लेते हैं पर वहीं जब घर बेटा पैदा हो तो शुभ शहनाई बजवाने के लिए और बच्चे को आशीर्वाद देने केलिए हम इन्हें खोज कर लाते हैं। इनसे मांगे हुए एक रूपये के सिक्का बड़ा शुभ होता है हमारे लिए और इस सिक्के को पाने के लिए हम हजारों रूपये दे देते हैं लेकिन एक प्यार का बोल पाते , एक सम्मान का हक़ हम उन्हें नहीं दे पाते।
और जो लोग यह सोंचते है की ये न माँ हैं बाप, इनका क्या वजूद है प्रकृति में ? तो ऐसे लोगों को मैं यह बताना चाहूंगी की शायद आप किन्नर समाज के ऐसे लोगों से अनजान हैं जिन्होंने न जाने देश में कितने बेसहारा मासूमों को परिवार दिया है, माँ-बाप का प्यार दिया है, सर पर छत और उनके बचपन को खेलने के लिए खुशनुमा आँगन दिया है। क्योंकि ममता शारीरिक बनावट की मोहताज नहीं होती एक संजीदा दिल धड़कना जरुरी है आपकेसीने में। एक बहुत ही अच्छी कहावत है की खूबसूरती देखने वाले की आँखों में होती है…….समाज को बदलना है तो पहले शुरुआत खुद से करते हैं।
किन्नर का आशीर्वाद
जो लोग ये पूछते हैं की ये हिजडें कमाते क्यों है ? उनके सवाल का जवाब देने की कोशिश की है मैंने अपनी कविता के जरिये, अगर मेरी कलम से लिखें शब्दों से किसी के भी सोंच में एक भी बदलाव संभव हुआ हो मैं समझूंगी की समाज तक मेरा सन्देश पहुँच रहा है और मेरा लिखना भी मुकम्मल हुआ—
चलो आज किसी की वास्तविकता का आईना दिखाती हूँ,
उनकी शारीरिक बनावट पर ठहाके लगने वालों चलो आज उनकी तकलीफें भी दिखाती हूँ ,
उनकी बेधरक अन्दाज के पीछे छुपे उनके गमों का सैलाब तम्हें दिखाती हूँ,
चलो आज किन्नरों का मैं तुमसे दर्द बाँटती हूँ,
ना मर्द होने का अहंकार है, ना स्त्री होने का अधिकार ,
फिर भी आँखो में आंसू नहीं कभी लेकिन होंठों पर सदा मुस्कान है
और सुना था मैने उसको कहते एक दिन की चिकने पैसे दे दे आज मेरा बेटा बिमार है ।
और तुम कहते हो किसके लिये कमाते हो तुम कौन सा तुम्हारा कोई परिवार है ।
कैसे भूल जाते हैं हम की दिल का होना किसी शारिरीक ढाँचे का मोहताज नहीं होता
बस यूँ ही अफवाहों में जीने वाले कह जाते हैं की एक हिजडा किसी का मा या बाप नहीं होता ।